” मन बहुत सोचता है “

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए ?

शहर के दूर के तनाव– दबाव कोई सह भी ले,

पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए?

नील आकाश , तैरते — से मेघ के टुकड़े ,

खुली घास में दौड़ती मेघ — छायायें ,

पहाड़ी नदी , पारदर्श पानी ,

धूप धुले तल के रंगारंग पत्थर ,

सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे ,

वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो –

इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए !

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो , न हो,

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए !

—– प्रसिद्ध कवि अज्ञेय

( संकलित )

—— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !

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