” हर बार गिरता हूँ, संभालता हूँ “

पता है, चलने में  हर  बार गिरता  हूँ  , संभालता  हूँ  ,

मगर  मंज़िल को  पाने  के  लिए  चलता  ही रहता हूँ  !

 

कभी खामोशियों  में  तो  कभी  लफ़्ज़ों  में  ढलता  हूँ

हिमालय की  तरह  हर  रोज़ कुछ  जमता, पिघलता हूँ  !

 

यही चाहत है  फितरत  भी कि दुनिया को कुछ बदलूँ

हक़ीक़त ये है  , ऐसा  करके  मैं  ख़ुद  को बदलता  हूँ  !

 

चुनौती आ खड़ी  होती  है  फिर  से  आजमाने  को

बड़ी  मुश्किल  से  अपने  आप  में  जैसे संभलता  हूँ  !

 

भले  सूरज  हो  तुम  लेकिन अंधेरों  में नहीं  जाते

दिया ही  मैं  सही, लेकिन  अंधेरों  में  तो  जलता  हूँ   !

( संकलित  )

 

——-  राम  कुमार  दीक्षित  , पत्रकार   !

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