” ज़िंदगी “

कल  एक  झलक  ज़िंदगी  को  देखा  ,

वो  राहों  पे  मेरी  गुनगुना  रही  थी   !

 

फ़िर  खोजा  उसे  इधर  उधर  ,

वो  आँख  मिचौली  कर  मुस्करा  रही  थी   !

 

एक  अरसे  के  बाद  आया  मुझे  करार  ,

वो  सहला  के  मुझे  सुला   रही  थी    !

 

मैंने  पूंछ  लिया— क्यों दर्द दिया कमबख्त तूने

वो  हँसी और बोली— मैं ज़िंदगी हूँ पगले  ,

तुझे  जीना  सिखा   रही    थी   !!

 

———  राम  कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार   !

 

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