” गज़ल “

जो  चल  गई, सो  चल  गई  ,

जो टल  गई  , सो  टल  गई   !

किसने रखी  है, उम्र बांधकर  ,

जो ढल  गई  ,  सो  ढल  गई   !

मौत  से  कब, जीती है  जिंदगी  ,

जो  छल  गई  ,  सो  छल  गई   !

न  बची  क्रोध– अग्नि  में  ये  काया  ,

जो  जल  गई  ,  सो  जल   गई   !

कब  मिटी  हैं  , मस्तक  की  लकीरें

जो   डल  गयीं  ,  सो  डल   गयीं    !

हर  सीप  में  ,  मोती  कहाँ  होता  ,

जो  फल  गई  ,   सो   फल   गई   !

कह  दी    ज़ुबाँ  ने    बात    पर   ,

जो   खल  गई  ,  सो  खल     गई   !

( संकलित   )

 

——-  राम कुमार  दीक्षित, पत्रकार  ,  पुणे  , महारास्ट्र  !

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