प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय !
राजा परजा सो रुचै , शीश देय ले जाय !!
यह दोहा कबीर दास जी का है ! कबीर साहेब ने कभी भी पांडित्य प्रदर्शन नहीं किया और न ही लोगों को शब्दों की जादूगिरी से प्रभावित करने की कोशिश की ! गूढ़ रहस्यों को उन्होंने बड़े ही सरल शब्दों में लोगों के समक्ष रखने में उनकी प्रतिभा विलक्षण रही ! कबीर साहेब जी का कहना है कि प्रेम को हम प्रयत्न करके, मेहनत करके पैदा नहीं कर सकते हैं और न ही प्रेम को बाज़ार से मूल्य चुकाकर खरीद सकते हैं ! प्रेम राजा और प्रजा सभी के लिए समान है ! इसकी कीमत ” शीश देय ” यानी अपने अहंकार को समाप्त करना है ” !
कबीर साहेब का कथन है कि जब तक ” मैं ” अर्थात अहंकार है, तब तक प्रेम की अनुभूति सम्भव नहीं है ! यह कबीर साहेब जी के द्वारा दिया गया ” बीज ” है जिसकी जितनी व्याख्या की जाय, वह कम ही होगी ! प्रेम संसार की कोई वस्तु नहीं है जिसे हम उपजा लें या किसी से खरीद लें या किसी से उधार ले लें ! प्रेम तो एक एहसास है जिसको अहंकार से शून्य होने पर ही अनुभव किया जा सकता है !
संसार में ही जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो सुध बुध खोकर ही प्रेम करते हैं और उन क्षणों में जो भी हमें प्रेम का एहसास होता है , वह स्वयं का अहंकार मिट जाने के कारण होता है ! इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अगर हमें किसी से भी प्रेम पाना है तो सबसे पहले अपना आपा खोना पड़ेगा, यानी अहंकार से शून्य होना ही पड़ेगा ! परमात्मा से प्रेम करना तभी संभव हो पाता है, जब हम पूर्ण रूप से अहंकार से शून्य हो जाते हैं और जब हम पूर्ण रूप से परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाते हैं, अपना अहंकार मिटाकर तो परमात्मा भी अपनी कृपा से अपने प्रेम का अनुभव हृदय में करा ही देते हैं कि भटको नहीं , मैं तुम्हारे हृदय में बैठा हूँ ! सारांश यही है कि अहंकार से शून्य होने पर ही प्रेम की उपलब्धि सम्भव है और प्रेम में आप पड़े नहीं कि परमात्मा आपको अपनी बाहों में भर लेगा ! प्रेम ही है परमात्मा या यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा ही प्रेम है !
राम कुमार दीक्षित, पत्रकार , पुणे !