बादल बिन आकाश में ,
सर को उठाकर देखा है ?
काले— कोरे से कैनवास पर ,
कुछ उजले— उजले छींटे हैं ,
मानो बैठा कोई चित्रकार ,
रंगते– रंगते उजला संसार ,
रचना अधूरी भूल गया !
निराशा के अनंत अंधियारे में ,
खुशियों के रंग भरने थे ,
लेकिन बस छींटे छोड़ गया !
क़ाली अंधेरी रात में ,
बस छींटों के प्रकाश में ,
तिमिर का साथी मानकर ,
अस्तित्व का अवयव जानकर ,.
बेफिक्र बढ़ता जाता हूँ !!
( संकलित )
———- राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !