कूबा जी और उनकी पत्नी महीने भर में केवल तीस बर्तन बनाकर अपनी जीविका चलाते थे ! बाकी समय भगवान् की भक्ति करते थे ! सत्य, शांति और समता आदि दैवीय गुण उनमें मूर्तिमान होकर विराजते थे ! भगवान् ने एक लीला रची ! एक दिन दो सौ साधुओं की मंडली कूबा जी के घर भोजन करने के लिए आ गई ! कूबा जी ने सभी को आदर पूर्वक बैठाया और अपने पड़ोसी से भोजन का सामान मांगने गए !
पड़ोसी कूबा जी की निर्धनता के साथ– साथ उनकी सत्यवादिता से परिचित था ! उसने कहा, मुझे एक कुँवा खुदवाना है ! तुम कुँवा खोद देना ! अभी भोजन सामग्री ले जाओ ! कूबा जी ने बड़ी प्रसन्नता से यह शर्त स्वीकार कर ली और सामान लेकर साधुओं को भोजन कराया ! दूसरे दिन प्रातः काल ही कूबा जी अपनी स्त्री के साथ कुँवा खोदने के काम में लग गए !
एक दिन जब कूबा जी नीचे उतरकर काम कर रहे थे , तभी अचानक सारी मिट्टी उनके ऊपर गिर पड़ी और वह दब गये ! इस दुर्घटना को हुए पूरा एक वर्ष बीत गया ! एक दिन उसी रास्ते से कुछ यात्री जा रहे थे ! उन्हें ज़मीन के भीतर से हरि कीर्तन की मधुर ध्वनि सुनाई दी ! यह खबर चारों ओर फैल गई ! यह सुनकर वहाँ के राजा ने उस स्थान की मिट्टी निकालने की आज्ञा दी ! कुछ ही घंटों के बाद राजा और वहाँ आये लोग कुंवे के भीतर का मनोरम दृश्य देखकर चकित हो गए ! लोगों ने देखा , भगवान् श्री हरि वहाँ विराजमान हैं और कूबा जी कीर्तन कर रहे हैं ! सभी ने प्रणाम किया और तभी वहाँ से मूर्ति अंतर्ध्यान हो गई !
——— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार , पुणे, महारास्ट्र !