पहाड़ पर, शायद, वृक्षारोपण न कोई शेष बची हुई
धरती पर , शायद , शेष बची घास नहीं
उड़ी है, भाप बनकर सरियों का पानी,
शेष न तारे चाँद के आस– पास !
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ ?
तब तुम सीमित टटोलो हृदय देश का , और कहो ,
लोगों के दिल में कहीं, अश्रु क्या शेष हैं ?
बोलो बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो !
——– प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर
( संकलित )
——— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे, महारास्ट्र !