“— मनाने निकले “

ज़िंदगी  तुझको    मनाने   निकले,

हम भी   ये     कैसे   दीवाने निकले   !

कुछ तो दुश्मन थे मुखालिफ्  लाईन  में  ,

उसमें कुछ    दोस्त  पुराने  निकले  !

मुझको नज़र अंदाज़  किया है  उसने  ,

ख़ुद  से  मिलने के  बहाने   निकले   !

दृष्टि   से   हीन  है  बस्ती     यारों  ,

आईना    किसको   दिखाने   निकले   !

इन  अंधेरों  में  जियोगे   कब  तक  ,

कोई  तो  दीप    जलाने   निकले   !

 

———  राम कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  , पुणे  !

 

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