पूजा करने का अर्थ है साधना ! स्वयं को साधना, नियंत्रित रखना ! हम पूजा तो करते हैं, पर उसका अर्थ कम समझते हैं ! पूजा के समय भी हमारा मन जहाँ– तहाँ दौड़ लगाता रहता है ! इंद्रियाँ अशांत , अतृप्त, असंतुष्ट व व्यग्र रहती हैं ! मन पूजा में केंद्रित नहीं रहता है ! मन इंद्रियों को संतुष्ट, शांत, तृप्त व प्रसन्न रखने के लिए पूजा में मन का केंद्रित होना अनिवार्य है !
मन इंद्रियों की शांति के लिए मन को ब्रह्म से जोड़ने की जरूरत होती है ! ब्रह्म से जुड़ते ही आत्मा की माँग पूर्ण हो जाती है ! मन इंद्रियों का स्वामी आत्मा है और आत्मा ही अविनाशी परमात्मा का अंश है जो परमात्मा से जुड़कर ही उर्जावान व प्रसन्न होता है क्यों कि वह ऊर्जा के भंडार से जुड़ जाता है !
साधक जब तक आत्मा की गहराई में गोता नहीं लगाता है ! तब तक साधना का मार्ग संभव नहीं है ! इससे प्रेम अधूरा माना जाता है ! प्रेम के बिना परमात्मा का सान्निध्य पाना संभव नहीं है ! पूजा का उपक्रम परमात्मा की भक्ति प्रेम में निमग्न होना है ! इसके बिना पूजा का उपक्रम स्वार्थ पूर्ण होता है ! भक्ति मार्ग में प्रेम से ही परमात्मा को पाया जा सकता है ! इसलिए परमात्मा की प्रेम लक्षणा भक्ति में निरंतर संलग्न रहना चाहिए !
——— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे, महारास्ट्र !