समाजशास्त्रियों के अनुसार पिछले तीन दशकों में उदारीकरण, निजीकरण का असर भारतीय समाज पर इस तरह हुआ है कि हमारी पारंपरिक, सांस्कृतिक, मुल्यापरक और आदर्श सहेजने की आदतें कहीं गायब हो गई हैं ! नई पीढी के आदर्श स्वीकारने में विज्ञापनों का रोल सबसे ज्यादा रहा है ! खास तौर पर टी वी और सोशल मीडिया के विज्ञापनों का ! क्यों कि इन माध्यमों पर प्रसारित ज्यादातर विज्ञापनों के किरदार फिल्मी सितारे या क्रिकेट के मशहुर खिलाडी होते हैं !
इन विज्ञापनों ने नई पीढी को जो सिखाया है, उससे उनकी जिंदगी के मकसद और आदर्श बदले हैं ! महज धन को ही जिंदगी का सबसे बड़ा दोस्त और सब कुछ हासिल करने का यंत्र मान लिया है ! इस मुद्दे पर जागरुकता, बहस और चर्चाओं की बेहद जरूरत है ! यदि व्यक्ति , परिवार और समाज की सोच और दिशा, विज्ञापन तय करने लग जाएं तो उस परिवार और समाज का सोचने– समझने का स्तर कैसा होगा ? हम परिवार और समाज को देखकर समझ सकते हैं !
प्रश्न यह उठता है कि क्या आज़ादी और मौलिक अधिकार के नाम पर ऐसा होते रहना चाहिए या इसके नकारात्मक प्रभाव को देखते हुए सरकार या विज्ञापनों की मर्यादा तय करने वाले निकायों को समाज और देश के हित मे इनके खिलाफ उचित ठोस कदम उठाया जाना चाहिए ! इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है !
——— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे, महारास्ट्र राज्य