” जीवात्मा कर्म का कर्त्ता और भोक्ता है। वही कर्म-बन्धन में बँध जाता है। उससे छूटने का उपाय भी गीता में वर्णित है। गीता का उपाय है निष्काम भाव से कर्म करना। गीता में इसे कर्म-योग कहा गया है।
भगवान कहते हैं, आसक्ति से रहित हो कर ज्ञानवान चित्त वाला और यज्ञार्थ (लोक कल्याण के लिए) किया गया कर्म पुरुष को नहीं बाँधता।
फिर कहा है कि जो पुरुष सब कामों को परमात्मा के अर्पण करके आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह जल में कमल पत्र की तरह पापों से लिप्त नहीं होता।
कर्मयोगी कर्म के फल की इच्छा छोड़ कर दृढ़ संकल्प वाला शान्ति को प्राप्त करता है और सकामी पुरुष फल में आसक्त हुआ कामनाओं के द्वारा बँधता है।
परन्तु आसक्ति रहित होना, निष्काम भाव से कर्म करने का स्वभाव बनाना तथा समत्व भाव उत्पन्न करना सुगम कार्य नहीं है। इसके लिए यज्ञरूप कर्म करने के भाव को समझना चाहिए और यज्ञरूप कार्य करना चाहिए। अभिप्राय यह कि जीवन के प्रत्येक कार्य को परमात्मा के अर्पण कर देना चाहिए।”
( संकलित )
——– राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !