वक़्त ने आसमां जमीं पर उतार डाला है ,
एक दिये ने अंधेरों को मार डाला है !
मग़रूर मत हो समंदर , अपने वज़ूद पर ,
बूँद ने तुझमें अपना वज़ूद डाला है !
दहकती आँखों में जो नफरत के शोले हैं ,
एक चिंगारी से ही धधक उठती ज्वाला है !
टुकड़े टुकड़े कर दिया दिल, उस बेवफ़ा ने ,
खिलौना समझकर दिल को यूँ उछाला है !
मेरे सपनों को कुचलकर जो बनाया है चमन ,
देख लो उसमें, खुशियों का लगा ताला है !
मासूम बनकर जो धोख़ा खिला रहे हो मुझे ,
वही धोख़ा तुम्हारे पास आने वाला है !
लुका छुपी का खेल खेलते बड़ी सफ़ाई से,
ना जाने कौन सा ये रोग तुमने पाला है !
———– राम कुमार दीक्षित , पत्रकार , पुणे !