” गज़ल “

वक़्त ने आसमां जमीं पर उतार डाला है  ,

एक दिये ने अंधेरों को मार  डाला  है   !

मग़रूर  मत हो  समंदर , अपने वज़ूद  पर  ,

बूँद  ने  तुझमें  अपना  वज़ूद  डाला  है   !

दहकती  आँखों  में  जो नफरत के शोले  हैं  ,

एक चिंगारी  से ही धधक उठती ज्वाला  है  !

टुकड़े  टुकड़े कर दिया  दिल, उस बेवफ़ा  ने  ,

खिलौना समझकर दिल को यूँ उछाला   है   !

मेरे सपनों को कुचलकर जो बनाया है चमन  ,

देख लो उसमें, खुशियों का लगा  ताला  है   !

मासूम बनकर जो धोख़ा खिला रहे हो मुझे  ,

वही धोख़ा तुम्हारे पास आने वाला है  !

लुका छुपी का खेल खेलते  बड़ी सफ़ाई  से,

ना जाने कौन सा ये रोग तुमने  पाला  है  !

 

———– राम कुमार  दीक्षित  , पत्रकार  , पुणे  !