गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार !
नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
आँख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन !
गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन– सी विपुल वाणी
गूंजती व्याकुल सुर में !
समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले यह अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार !
———— कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर
( संकलित )
——– राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !