एक बार विनोबा भावे युवकों के एक दल के साथ भ्रमण कर रहे थे ! एक जगह पर वह अचानक ठहरे और कुछ लोगों को हँसता खिलखिलाता हुआ देखकर कहने लगे , ” यह कुत्सित हँसी है ” ! इतना कहकर वह आगे चलने लगे ! कुछ देर बाद वह फिर रुके और कुछ लोगों को हँसता देख , कहने लगे , अहा, कैसी प्यारी हँसी है , अहा ! फिर आनंदित होकर आगे चलने लगे ! अब युवकों से रहा नहीं गया ! पूँछा कि ” आचार्य यह कैसी दुविधा में डाल दिया है आपने ? हंसी तो आखिर हंसी ही होती है न ! पहले भी कुछ लोग हंस रहे थे !
आचार्य विनोबा भावे ने कहा, यही तो बात है वत्स ! विनोबा ने धीरे से हंसकर कहा,— पहले वाले लोग किसी पर हंस रहे थे यानी किसी की मजबूरी, आफ़त या दिक्कत पर हंस रहे थे , किन्तु ये लोग आपस में मिल– जुलकर कुछ चर्चा करते हुए हंस रहे थे ! किसी पर हँसना और किसी के साथ हँसना, ये दोनों बिल्कुल अलग– अलग हैं ! इस बात का फ़र्क़ युवकों ने आज समझा ! हमें भी हँसते समय सावधान रहना चाहिए कि हमारी हँसी से किसी को कोई दुख न हो बल्कि हमारी हँसी से दूसरा भी हमारे साथ हंसने लगे !
———- राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे !