” बुरा जो देखन मैं चला—“

संत कबीर साहेब का एक दोहा है :—                            ” बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय  ,                जो दिल खोज्यों आपनो, मुझ सा बुरा न कोय  ”   !   कबीर साहेब सन्त हैं और ये वाणी सन्त की वाणी है  ! आज हमारी खोज यही रहती है कि मुझसे ज्यादा कितने बुरे हैं  !   आज हम अपनी खोज नहीं कर रहे हैं कि मुझमें भी  त्रुटियां  हो सकती हैं और हो सकता है कि मैं भी गलत हो सकता हूँ  ! दूसरे में दोष दर्शन, इसका कोई इलाज नहीं है  ! जब तक दूसरा ही गलत और मैं हमेशा ठीक हूँ  ,! तब तक सुधार की कोई गुंजाईस नहीं है  !  यह सोचने और विचार करने का विषय है कि कहीं मैं भी गलत हो सकता हूँ  !

एक और भयावह रोग है कि दूसरा मेरे बारे में क्या सोच रहा है  ! इस बीमारी से बहुत लोग ग्रसित हैं  ! आप घर से बाहर निकले हैं किसी काम से  , अब कुछ लोगोँ ने आपको देखा  ! शायद उनका देखना कुछ अनमना सा रहा हो  ! अब आपने सोचा कि ये पता नहीं क्या सोच रहा है मेरे बारे में  ! अब दूसरा पहलू लीजिये  जिसने आपको देखा  , वह भी यही सोच रहा है कि ये कहीं जा रहा है  ! पता नहीं मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा  ! उसने यह भी सोच लिया कि अच्छा तो सोचेगा नहीं  ! इसी उधेड़बुन् में जिंदगी चलती रहती है  !

अब रिश्तों की बात लीजिये  ! कुछ लोग यही सोचते रहते हैं कि रिश्तेदार मेरे खिलाफ साज़िश रच रहे हैं  ! उनको सोचना यह चाहिए कि आप अपना कर्तव्य क्या निभा पा रहे हैं  ? साज़िश रचने का किसी के पास समय नहीं है  ! आप अपने मन में झांकिये, वहाँ क्या गड़बड़ी है  ! कहीं आप  अपेक्षाओं के कारण दोष दर्शन के शिकार तो नहीं हो गये हैं  ! यहाँ देखना यह होगा कि हम दुसरों के लिए क्या कर रहे हैं  ? हम रिश्ता ठीक से निभा पा रहे हैं कि नहीं  ? दुसरों की छोड़िये  , हम अपने मित्रों, पड़ोसियों  , राह चलने वालों  , बच्चों और बुजुर्गों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं  ! इस पर भी विचार करना होगा कि हम क्या परिवार के प्रति पूरी जिम्मेदारी निभा रहे हैं  ! हम समाज के साथ कैसा रुख रखते हैं  !  क्या हम सबके साथ अपना ठीक से कर्तव्य निभा रहे हैं  ! स्वयं के सुधार से  ही व्यक्तित्व में परिवर्तन सम्भव हो सकता है  !

 

———राम कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  ,  पुणे  !