धीरे– धीरे चल री पवन मन आज है अकेला रे ,
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे !
धीरे चलो री आज नाव ना किनारा है ,
नयनों के बरखा में याद का सहारा है !
धीरे– धीरे निकल मगन– मन, छोड़ सब झमेला रे !
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे !
होनी को रोके कौन, वक़्त से बंधे हैं सब,
राह में बिछुड़ जाए, कौन जाने कैसे कब,
पीछे मींचे आँख, संजोये दुनिया का रेला रे,
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे !
तेज़ जो चले हैं माना दुनिया से आगे हैं ,
किसको पता है किन्तु, कितने अभागे हैं ,
वो क्या जाने महका कैसे, आधी रात बेला रे !
पलकों की नगरी में सुधियों का मेला रे !!
—- प्रसिद्ध कवि कुमार विश्वास
( संकलित )
— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !