” सब पतंगे उड़ गए “

दीप

बेचारा बुझा क्या

सब पतंगे उड़ गए !

अब अंधेर के

नगर में बस्तियों की अस्थियाँ

तकती हैं जल- कलश को निज विसर्जन के लिए

स्नेह सारा

चुक गया था मुर्तियों के सामने

प्रार्थना में तन हवन है अब समर्पण के लिए

ज्यों उठा हल्का धुँवा क्या

लोग घर को मुड़ गए !

एक कोरी पुस्तिका में पृष्ठ मिट्टी के टके

दे गया जीवन नियंता सांस के बाज़ार में

जिस किसी की उम्र दुख की बारिशों में ही ढले

वह बताओ क्या भला लिख पायेगा संसार में !

अश्रु स्याही

से लिखा क्या

पृष्ठ सब तुड – मुड़ गए !

दीप हो या

व्यक्ति हो अभिव्यक्ति हो रोशन सदा

हर प्रकाशित पुंज का बुझना नियत है सृष्टि में

स्वार्थों की

आँधियों में लौ भले मद्धिम पड़े

किन्तु जलकर पथ सजाना है सभी की दृष्टि में !

दृष्टि में

दर्शन मिला क्या

पंथ सारे जुड़ गए !!

( संकलित )

— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !

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