थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी ,
सोचने फिर फिर यही जी में लगी ,
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढी !
मैं बचूंगी या मिलूँगी धूल में
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में !
बह गई उस काल एक ऐसी हवा,
वो समंदर ओर आई अनमनी !
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला ,
वो उसी में जा गिरी मोती बनी !
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर !
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें ,
बूंद लों कुछ और ही देता है कर !
———- प्रसिद्ध कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरऔध
( संकलित )
——— राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !