तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतंबरा ,
अब शाम हो रही है , मगर मन नहीं भरा !
खरगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब ,
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा— डरा !
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है ,
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा—- भरा !
लंबी सुरंग— सी है तेरी ज़िंदगी तो बोल ,
मैं जिस जगह खड़ा हूँ , वहाँ है कोई सिरा !
माथे पे रख के हाथ बहुत सोचते हो तुम ,
खाके कसम बताओ हमें , क्या है माज़रा !
———- प्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार
( संकलित )
——– राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !