” अनजाने अपने “

चलो उनका हाल चाल लेते हैं ,
जिनका कोई नहीं है !
रात हो गई है , लेकिन सड़क किनारे
बैठी माताजी सोई नहीं है !
पास जाकर पूंछा ,
माताजी क्या बात है ?
आपने कुछ खाया कि नहीं ?
नहीं बेटा, कुछ नहीं खाया,
आज कुछ मिला नहीं !
आज भगवान् बन के कोई आया नहीं,
इसलिए कुछ खाया नहीं !
मैंने कहा, माताजी..
चौराहे के कोने पर
एक छोटा सा होटल खुला है,
मैं आपके लिए एक प्लेट
दाल– चावल लाता हूँ,
अपने हाथों से आपको खिलाता हूँ
मैं एक प्लेट दाल– चावल लेकर लाया
माता जी को चम्मच से खिलाने लगा,
माता जी , विनती के बाद
खाने तो लगीं , लेकिन
खाते हुए रोने लगीं ,
बोली बेटा , मेरा इस दुनिया में
कोई नहीं…
कोई भगवान् बन के आता हैं
और इसी तरह खिलाता है
और बेटा, हर मौसम में
मैं इसी बेंच पर सोती हूँ,
और सोचती हूँ कि
कोई न कोई भगवान् आयेंगे
और मेरे आंसुओं को
पहचानेंगे …
और मुझे इस जीवन से
मुक्ति दिलाएंगे,
बेटा , अब क्यों जीना ?
किसके लिए जीना ?
मैं यह सब सुनकर
चुप था ,
कुछ भी कहने की हिम्मत
मेरे अन्दर नहीं थी
मैं भी माताजी के साथ
रोने लगा और माताजी के
आँसू पोंछने लगा. .

 

—————  नेहा  साहनी