स्वप्न झरे फूल से , मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे !
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे !!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई
पात– पात झर गए कि शाख– शाख जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली– कली कि घुट गई गली– गली
और हम लुटे– लुटे वक़्त से पिटे — पिटे
सांस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे !
माँग भर चली कि एक जब नई– नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन– चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन– नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुंछ गया सिंदूर तार– तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे !!
———- प्रसिद्ध कवि गोपालदास “नीरज ”
( संकलित ) यह गीत फिल्म ” नई उमर की नई फसल ” में लिया गया था !
———- राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !