कि हंसती बहारों ने ?
तुमने देखा ,
कि लाखों सितारों ने ?
कि जैसे सुबह
धूप का एक सुनहरा बादल छा जाए ,
और अनायास
दुनिया की हर चीज़ भा जाए :
कि जैसे सफेद और लाल गुलाबों का
एक शरारती गुच्छा
चुपके से खिड़की के अन्दर झांके
और फिर हवा से खेलने लग जाए
शरमा के
मगर बुलाने पर
एक भीनी– सी नाज़ुक खुशबू
पास खड़ी हो जाए आके !
तुमने कुछ कहा,
कि जाग रही चिड़ियों ने ?
तुमने कुछ कहा
कि गीत की लड़ियों ने
तुमने सिर्फ पूंछा था —
” तुम कैसे हो ? ”
लगा वह उलाहना था—
” तुम बड़े वैसे हो … / ”
मैंने चाहा !
तुमसे भी अधिक सुन्दर कुछ कहूँ ,
उस विरल क्षण की अद्वितीय व्याख्या में
सदियों तक रहूँ,
लेकिन अव्यक्त
लिए मीठा– सा दर्द,
बिखर गए इधर– उधर
मोहताज़ शब्द….!
————— कुँवर नारायण
( संकलित )
———– राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !