एक बार एक राजा को अपने पराक्रम और साम्राज्य पर बहुत अभिमान हो गया ! इस अभिमान के कुप्रभाव से राजा बहुत बड़बोला बन गया ! यह बात राजा के कुलगुरु ने भांप ली ! वह राजा को एक बार अपने साथ वन भ्रमण के लिए ले गये ! वहाँ बादल गरज रहे थे ! मोर नाच रहे थे ! हवा बह रही थी लेकिन राजा का इन सब पर बिलकुल भी ध्यान नहीं था ! अब कुलगुरु ने अचानक एक खुजली वाली पत्ती राजा के हाथ से स्पर्श करा दी ! पल भर गुजरा और राजा हथेली को मसलने लगा ! थोड़ी देर में वह लाल हथेली की इस हालत से परेशान हो गया ! अब कुलगुरु ने वन से ही कुछ पत्तीयां लेकर उनका रस लगाया और कुछ ही पल में राजा की हथेली सामान्य हो गई !
कुलगुरु ने कहा, राजन आप अपने सिवा हर किसी को महत्वहीन समझ रहे हैं ! अपने आप से दूसरे को छोटा समझना उचित नहीं है राजन ! अब आप आज से यह समझ लीजिये कि यदि स्वयं को अच्छाइयों पर आत्ममुग्धता होने लगे तो यह जान लीजिये कि अब उसकी अच्छी और सच्ची चीजों से मिलने की प्रक्रिया बिलकुल रुक चुकी है ! कहानी से यही सीख मिलती है कि हमें कभी इस बात का अहंकार नहीं होना चाहिए कि मैं जो अच्छे काम कर रहा हूँ , वही अच्छे हैं और मुझसे ज्यादा अच्छे काम कोई दूसरा नहीं कर सकता ! यह संसार परमात्मा की रचना है ! यहाँ एक से एक योग्य एवं विद्वान व्यक्ति हैं , जो मुझसे ज्यादा अच्छे और महान काम करते हैं और कर सकते हैं , इसलिए सभी के कार्य अच्छे हैं ! इसका आभास करते रहना चाहिए ! मुझसे यदि कुछ अच्छा कार्य हो रहा है तो इसमें परमात्मा की ही कृपा है ! परमात्मा को समर्पित कर किये गए सभी कार्य अच्छे होते हैं !
————– राम कुमार दीक्षित , पत्रकार, पुणे !