” परमात्मा से मांगिये कम, उन्हें धन्यवाद ज्यादा दीजिये “

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि हर  मनुष्य में  पशु के गुण भी छुपे हुए मौजूद रहते हैं   ! उसके भीतर का छुपा हुआ जानवर  कब, कितना प्रगट होता है, यही उस मनुष्य की छवि को निर्मित करता है  !

दूसरे का हक़ ले लेना, छीनना— झपटना, अकारण आक्रमण करना , यह सब मनुष्य के भीतर का छुपा हुआ पशु ही करवाता है  ! और यही पशुता के गुण लिए हुए मनुष्य मन्दिर तक जाता है  ! इसीलिए आप देखेंगे कि मन्दिर जाने और मन्दिर पहुंचने में बहुत अन्तर होता है  ! एक वर्ग मन्दिर जाकर परमात्मा से सिर्फ मांगता है , ऐसी भावदशा में उसके भीतर के  पशु के गुण सक्रिय हो जाते हैं  ! लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो मन्दिर जाकर परमात्मा को धन्यवाद देता है  , ऐसी भावदशा में उसके भीतर मनुष्यता के गुण सक्रिय रहते हैं  !

परमात्मा से जितनी भी  प्रार्थना ऋषि– मुनियों ने की हैं  ! उसमें परमात्मा से माँग कम और आभार अधिक व्यक्त किया गया है  ! आदि गुरु शंकराचार्य कहा करते थे कि जब मनुष्य पर बाहरी शक्तियाँ हावी हो जाती हैं  , तब वो माँगने लगता है और जब भीतरी शक्तियाँ सक्रिय रहती हैं  , तब वह परमात्मा से प्रार्थना करता है  , आभार व्यक्त करता है  !   मनुष्य को चाहिए कि यदि उसको अपने भीतर पशुता के गुणों को नियंत्रित करना हो तो  परमात्मा से माँग कम करनी चाहिए  बल्कि परमात्मा को धन्यवाद ज्यादा देना चाहिए  ! परमात्मा के मन्दिर में मनुष्य को अपने अश्रुओं से धन्यवाद देना चाहिए कि हे परमात्मा आपने हमेँ बहुत दिया है और उतना दिया है  , जितने की शायद हम  योग्यता नहीं रखते  !  प्रार्थना यही होनी चाहिए कि हे परमात्मा आपको अनन्त धन्यवाद है जितना आपने हमें दिया है  ! आप परमात्मा को धन्यवाद देकर तो देखिये , बिना मांगे ही परमात्मा आप पर अपनी कृपा की बारिश  अवश्य ही करेंगे  !

 

————  राम कुमार दीक्षित  , पत्रकार  , पुणे  !