व्यास जी ने गीता के आरंभ में एक पंक्ति लिखी है — धर्मक्षेत्रे— कुरुक्षेत्रे ! पहली पंक्ति में सोचकर लगता है कि यह धर्मक्षेत्र कैसे हो सकता है , जहाँ कुरुक्षेत्र भी हो सकता है ? व्यास जी कहना चाहते हैं कि धर्मक्षेत्र में भी मतभेद हो जाते हैं ! वशिष्ठ जी और विश्वामित्र दोनो ही विद्वान थे लेकिन उनमें मतभेद था !
रामलला की प्राण— प्रतिष्ठा होने के बाद अब मतभेद नए— नए रूप में सामने आ रहें हैं ! श्रेय का चक्कर ऐसा ही होता है ! मुझे श्रेय नहीं मिला , मेरा श्रेय कोई और ले गया ! एक प्रसंग है—- नारद जी ने भगवान् विष्णु जी से उनका रूप माँगा था ! उनका सौंदर्य माँगा था क्यों कि नारद जी विवाह करना चाहते थे ! भगवान् चाहते थे कि मेरा भक्त कहीं भटक न जाए तो नारद जी को बन्दर की आकृति दे दी ! बाद में भगवान् विष्णु स्वयं आकर उस सुंदरी को ले गए !
यह सब देखकर नारद जी भड़क गये ! गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि — ” मुनि अति बिकल मोह मति नाठी ! मनि गिरि गई छूटी जनु गाँठी ! मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी और वे विकल हो गए थे ! यदि मोह में बुद्धि पड़ी है , तो आपको यही लगेगा कि यह अवसर है ! मुझे मिलना चाहिए था ! बुद्धि को मोह से बाहर निकालिए ! इस ऐतिहासिक दृश्य को प्रेरणा का पुंज बनाइये ! सबको खुश हो जाना चाहिए कि रामलला अपने गृह में आ गए हैं ! इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती है !
——— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार , पुणे !