निषिद्ध कर्मों का त्याग बहुत जरूरी है। संसार भी चाहते हो और भगवान को भी चाहते हो तो किया हुआ साधन व्यर्थ नहीं जाएगा पर वर्तमान में लाभ नहीं होगा।
कोई भी कर्तव्य कर्म दूसरे के हित के लिए किया जाए तो वह भजन है अपने लिए किया जाए तो पाप है। समाधि भी अपने लिए नहीं करनी है संसार या भगवान के लिए करना है। अपने सुख के लिए कर्म करने वाला राक्षस की श्रेणी में आता है। कर्म शरीर से करना और फल स्वयं चाहना क्या उचित है ? शरीर तो संसार का और संसार के लिए है शरीर के द्वारा संसार की सेवा होनी चाहिए।
जो अपने शरीर का पोषण नहीं करता, उसके शरीर का पोषण संसार करता है; जैसे मां बालक का पोषण करती है। आप शरीर को अपना मत मानो तो शरीर को भोजन देने का महात्म्य हो जाएगा। शरीर को संसार का मानो तो संसार की सेवा हो जाएगी और भगवान का मानो तो भगवान की सेवा हो जाएगी। जिस की सेवा करते हो उस से अपनापन हटा लो अथवा जिसको अपना नहीं मानते उसकी सेवा करो–दोनों का फल बराबर है।
परमात्मा को समर्पित कर किये जाने वाले कार्य ही अहं से रहित होते हैं ! शरीर को अपना मानकर, अर्थात शरीर को ही अपना स्वरूप मानकर किये जाने वाले कार्य संसार से बांधने वाले हैं और जन्म– मरण का यही कारण भी बनता है ! हर सांस में परमात्मा का स्मरण ही संसार से मुक्ति दिलाता है और परमात्मा के चरणों में स्थान दिलाता है ! यह पूरा संसार ही परमात्मा की सृष्टि है इसलिए सब में परमात्मा का स्वरूप मानकर ही व्यवहार करना परमात्मा का असली भजन है !
———– राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !