अरविंद घोष के जीवन में एक समय ऐसा आया कि वे रुपये पैसों के प्रति निरासक्त से हो गए थे ! तीन महीने में एक बार वेतन मिलता था और घर आते ही सारी की सारी थैली वे कमरे में रखी ट्रे में उडेल देते थे ! ट्रे कमरे में ही रखी रहती थी ! आवश्यकतानुसार खर्च के लिए पैसे उठाये और बाकी वहीं खुली ट्रे में छोड़ देते ! कोई तिजोरी ताला न देखकर उनके मित्र ने एक प्रश्न किया , ” आप रुपयों की ट्रे को ऐसे ही रखते हैं ” कोई चोरी का भी डर नहीं आपको ?
अरविंद घोष हँसकर बोले, ईमानदार व्यक्तियों के बीच में रहता हूँ ! पुनः प्रश्न किया, ” आप हिसाब तो रखते नहीं, तो कैसे कह सकते हैं कि आपके पास के व्यक्ति भले और ईमानदार हैं ? घोष ने उत्तर में कहा ” मेरा हिसाब भगवान् रखते हैं , वह मुझे उतना ही देते हैं, जितने की मुझे जरूरत होती है , तो फिर हिसाब के पीछे क्यों सिर खपाई की जाए ! अरविंद घोष का उत्तर सुनकर वह मित्र घोष के विश्वास की पराकाष्ट्ठा पर आश्चर्यचकित तो था ही , उसने भी परमात्मा पर इस स्तर का विश्वास करना सीख लिया ! परमात्मा पर अगर अटूट विश्वास है तो इस जगत का कोई भी काम असंभव नहीं है !
——— राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे !