” ध्यान “

ध्यान का पहला अर्थ है कि हम अपने शरीर के प्रति जागना शुरू  करें  ! यह जागरण अगर  बढ़ सके तो आपका मृत्यु– भय क्षीण हो जाता है और जो चिकित्सा–शास्त्र मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर सकता, वह चिकित्सा— शास्त्र मनुष्य नाम की बीमारी को कभी भी स्वस्थ नहीं कर सकता  ! उसे भीतर की चेतना का एहसास शुरू हो जाए, भीतर की चेतना की फीलिंग शुरू हो जाए  !

हमें आमतौर से भीतर की कोई फीलिंग नहीं होती  ! हमारी सब फीलिंग शरीर की होती है—- हाथ की होती है, पैर की होती है, सिर की होती है, हृदय की होती है  ! उसकी नहीं होती जो मैं हूँ  ! हमारा सारा बोध, हमारा सारा जागरण घर का होता है  ! घर में रहने वाले मालिक की नहीं होती  ! यह बड़ी खतरनाक स्थिति है , क्यों कि कल अगर मकान गिरने लगेगा, तो मैं समझूँगा— मैं गिर रहा हूँ  ! वहीं मेरी बीमारी बनेगी  ! अगर  मैं यह भी जान लूँ कि  मैं मकान से अलग हूँ  ! मकान के भीतर हूँ  ! मकान गिर भी जायेगा, फिर भी मैं हो सकता हूँ  , तो बहुत फ़र्क़ पड़ेगा  ! बहुत बुनियादी फर्क पड़ जायेगा, तब मृत्यु का भय क्षीण हो जायेगा  ! ध्यान के अतिरिक्त मृत्यु का भय कभी भी नहीं हट सकता   !

——–आचार्य  रजनीश

( संकलित  )

 

———– राम कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  ,  पुणे   !