एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभि भूत , फिर जहाँ मैंने संजोकर और भी सब रखी हैं ज्योति : शिखायें,
वहीं तुम भी चली जाना— शांत तेजोरूप !
एक क्षण भर और
लंबे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते !
बूंद स्वाती की भले हो, बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में बरस कर बरस बीतें
एक मुक्ता—रूप को पकते !!
———– प्रसिद्ध कवि अज्ञेय
( संकलित )
———– राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !