एक बार की बात है, एक संत एक गाँव से गुजर रहे थे ! एक खेत में गेंहूँ के लहलहाते हुए पौधे देखकर उन्होंने कहा– भगवान् की कृपा से इस बार फसल बहुत अच्छी हुई है !
खेत के किनारे हुक्का गुड्गुड़ाते हुए किसान ने यह सुनकर कहा ” साधु बाबा ” इसमें भगवान् की कृपा कहाँ से आ टपकी? खून पसीना एक कर खेत की जुताई की, बीज बोये, पानी देता रहा, मेरे परिश्रम के कारण ही खेत लहलहा रहा है !
किसान की बात सुनकर साधु, मुस्कराते हुए आगे बढ़ गए और कुछ दिन बाद उसी गाँव से लौटते हुए संत उसी खेत के पास एक पेड़ के नीचे बैठ गये ! उन्होंने देखा कि गेंहूँ के पौधे झुलसे पड़े हैं ! उनमें कीड़ा लग गया था !
संत को देखते ही किसान उनके लिए लौटा भर पानी ले आया ! संत ने किसान से सहानुभूति व्यक्त करते हुए कहा— भैया बहुत बुरा हुआ…. हरे भरे खेतों को क्या हो गया ?
किसान ने कहा— बाबा भगवान् ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा ! कीड़े ने पूरी फसल बरबाद कर दी ! यह सुनते ही संत ने कहा— लेकिन उस दिन तो तुम कह रहे थे कि लहलहाती फसल तुम्हारी मेहनत का नतीजा है! इसमें भगवान् की कृपा नहीं है ! ऐसे में अब फसल की बरबादी का दोष भगवान् को क्यों देते हो ? अपने प्रारब्ध या प्रकृति का दोष क्यों नहीं मानते ?
किसान को समझ में आ गया कि न तो उसका अहंकार ठीक था और न ही तबाही के लिए भगवान् को दोष देना उचित है !
यही हाल हम मनुष्यों का भी है कि अगर कोई अच्छा काम हो गया तो हमने किया और हमारे जीवन में अगर कोई बुरा परिणाम आया तो हम सीधा भगवान् पर आरोप लगाते हैं , जबकि संसार की पूर्ण श्रुष्टि परमात्मा की कृपा से ही चल रही है और कुछ हमारे जीवन में कष्ट आते हैं तो प्रारब्ध के कर्मो से ही आते हैं ! हमें हर पल परमात्मा को धन्यवाद देते ही रहना चाहिए !
—– राम कुमार दीक्षित , पत्रकार , पुणे !