अब तोहि जान न देहू राम पियारे ,
ज्यू भाव त्यू होह हमारे !! टेक !!
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये!!
चरननि लागि करौं बरियायी, प्रेम प्रीति राखों उरझाई !
इत मन मन्दिर रही नित चोप, कहे कबीर परहु मति घोष!!
व्याख्या —
हे प्रियतम राम ! अब मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगी ! तुम्हें जिस प्रकार से भी अच्छा लगे या जैसे तुम चाहो , वैसे तुम मेरे बनकर रहो ! हे परमात्मा ! मैंने बहुत दिनों तक तुमसे बिछुड़कर अर्थात तुमसे दूर रहने के बाद अब फिर से प्राप्त किया है ! यह मेरा परम सौभाग्य है कि अब तुम मुझे घर बैठे ही मिल गये हो अर्थात तुम्हें पाने के लिए मुझे न तो जाना पड़ा और न कुछ करना पड़ा ! अब तो मैं तुम्हें बलपूर्वक रोक कर तुम्हारी हर सम्भव सेवा करूँगी और तुम्हें अपने प्रेम व स्नेह के जाल में उलझा कर रखूँगी ताकि तुम मुझे छोड़कर न चले जाओ ! हे मेरे प्रियतम ! अब तुम मेरे मन रूपी मन्दिर में भली प्रकार से रहो और मुझे छोड़कर कहीं और जाने के धोखे में मत पड़ना अर्थात मेरे मन मन्दिर में हमेशा के लिए विराजमान हो जाओ !
( संकलित )
राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !