वाएज़ के भी कितनी चढ़ गयी है !
हम तो कहेंगे तेरी शोख़ी
दबने से कुछ और बढ़ गयी है !
हर शय ब– नसीमे–लम्से–नाज़ुक
बर्गे–गुले— तर से बढ़ गयी है !
जब–जब वो नज़र उठी मेरे सर
लाखों इलज़ाम मढ़ गई है !
तुझ पर जो पड़ी इत्तफाकन्
हर आँख दुरुद् पढ़ गई है !
सुनते हैं कि पेंचो–खम निकलकर
उस ज़ुल्फ़ की रात बढ़ गयी है !
जब–जब आया है नाम मेरा
उसकी तेवरी — सी चढ़ गयी है !
अब मुफ्त न देंगे दिल हम अपना
हर चीज़ की कद्र बढ़ गयी है !
जब मुझसे मिली ‘ फिराक ‘ वो आँख
हर बार इक बात गढ़ गयी है !
——– फ़िराक गोरखपुरी
( संकलित )
राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !