” आशा का दीपक “

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है

थक कर बैठे गये क्या भाई मंजिल दूर नहीं है

 

चिंगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से

चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण- चिन्ह जगमग से

शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे  राही

और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग  से

बाकी होश तभी तक  जब तक जलता  तूर नहीं है

थक कर बैठे गये क्या भाई मंज़िल दूर  नहीं  है  !

 

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य प्रकाश  तुम्हारा

लिखा जा चुका अनल — अक्षरों में इतिहास तुम्हारा

जिस मिट्टी ने लहू पिया  , वह फूल खिलाएगी  ही,

अम्बर पर घन बन छायेगा  ही उच्छास्  तुम्हारा

और अधिक ले जाँच, देवता  इतना क्रूर  नहीं  है

थक कर  बैठे गये क्या  भाई  , मंज़िल दूर  नहीं है  ?

 

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का

सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का

एक खेप है शेष, किसी विध  पार उसे कर जाओ

वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का

आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा  शूर नहीं  है

थक कर बैठ गये क्या भाई  , मज़िल दूर  नहीं है  !

 

———- प्रसिद्ध कवि  रामधारी सिंह  ” दिनकर  ”

( संकलित  )

राम कुमार दीक्षित  ,   पत्रकार   !