” काँटे सहते सहते हम गुलाब हो गये “

हमने  डाले  बीज  प्यार  के  ,  उसने  काँटे  बोये,
उन  काँटों से  लिपट लिपट  कर  हम  रात  रात  भर  रोये
दुनिया  भर  के  दर्दों  का  जवाब  हो  गये  ,
काँटे  सहते सहते हम  गुलाब  हो  गये  !
ऋतु बसन्त की डोर अरे  पतझड़ से किसने बांधी
उनके घर में गई चाँदनी  , मेरे घर में  आँधी  ,
सतरंगे सावन से भी कोई  अनुबंध नहीं है ,
मेरे  लिए मौसम भी नवाब हो गये  ,
काँटे सहते सहते हम गुलाब हो गये  !
टुकड़े मेरे किये तो मैं बन गयी एक से ग्यारह
चिंगारी सहते सहते मैं हुई गगन की तारा
इतना कठिन किया मुझको, मैं सहज सरल बन बैठी
इतना मुझे तराशा कि मैं ताजमहल बन बैठी
झुकते झुकते हम तो बस आदाब हो गये
काँटे सहते सहते हम गुलाब हो गये  !
उसने भेजा ज़हर वो मैंने मीरा बन पी डाला
भाँवर मेरी हुई धुवें से तभी बनी मैं ज्वाला
मेरे दिल के लहू का मुझको तोहफा दिया निराला
मैंने उसे महावर करके पैरों में रच डाला
उनकी कामना पे हम तेज़ाब हो गये
काँटे सहते सहते हम गुलाब हो गये
बिन बोले ही मौन मेरा चर्चित संवाद हुआ है
जाने कितनी बार आँसुओं का अनुवाद हुआ है
कलाकार को काल कोठरी, जाहिल की जय बोली
कागा को सम्मान पत्र, कोयल को मारी गोली
सुनते हैं कि ज़र्रे भी  आफ़ताब हो गये,
काँटे सहते सहते हम गुलाब हो गये  ! !
————- गीतकार  श्रीमती माया गोविंद
( संकलित  )
राम कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  !