” बड़ों का सहारा बनना ही सबसे बड़ी नेकी है “

*पिताजी अब उम्रदराज़ हो गए थे…! चलते समय उनका संतुलन बिगड़ जाता, इसलिए वे दीवार को सहारा बना लेते..!*
*जहाँ-जहाँ उनकी हथेलियाँ दीवार से टकरातीं, वहाँ पेंट घिस जाता और दीवार पर उनकी उंगलियों के हल्के-हल्के निशान रह जाते…!*

*मेरी पत्नी अक्सर कहती–*
*“दीवार कितनी गंदी दिखती है, कुछ तो करो…!”*
*मैं चुप रहता, पर अंदर ही अंदर खीज भी महसूस करता…!*

*एक बार पिताजी ने सिर दर्द के कारण बालों में तेल लगाया..!*
*उस दिन चलते-चलते दीवार पर उनके हाथ से तेल के दाग पड़ गए…!*
*पत्नी की झुंझलाहट और बढ़ गई…! उसने मुझसे कहा—“अब तो हद हो गई…!”*

*गुस्से में मैंने भी पिताजी को डाँट दिया…! कहा—“आप दीवार मत पकड़ा करो, बिना सहारे चलने की कोशिश कीजिए…!”*
*मेरे शब्दों ने उनका मन तोड़ दिया…! वे चुप हो गए, और उनके चेहरे पर गहरी उदासी उतर आई…!*

*उस दिन के बाद उन्होंने सचमुच दीवार पकड़ना छोड़ दिया…!*
*लेकिन, एक दिन वे अचानक लड़खड़ाकर गिर पड़े..!*
*गिरने के बाद फिर कभी ठीक से खड़े नहीं हो पाए…!*
*कुछ ही महीनों में वे हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए…!*

*मैं अंदर ही अंदर अपराधबोध से भर गया…!*
*काश उस दिन मैंने कठोर शब्द न कहे होते… शायद वे और कुछ साल हमारे साथ रहते…!*

*कई साल बीते….घर की पुताई का समय आया…!*
*पेंटर आया तो मेरा बेटा, जो अपने दादाजी से बहुत जुड़ा हुआ था, बोला—*
*“इन उंगलियों के निशान मत मिटाना, ये दादाजी की यादें हैं..!”*

*पेंटर भावुक हो गया… उसने कहा—*
*“इन निशानों को मैं सजाऊँगा, इन्हें और भी खास बना दूँगा” और सचमुच उसने उन हाथों के निशानों को एक सुंदर डिज़ाइन का रूप दे दिया..!*

*धीरे-धीरे वे दीवारें हमारे घर की शान बन गईं..!*
*आने वाला हर मेहमान कहता–*
*“ये तो अनोखा और दिल छू लेने वाला सजावट है…!”*

*समय का पहिया घूमता है, अब मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँ…. पैरों में कमजोरी है, चलते समय दीवार का सहारा लेता हूँ..!*

*एक दिन मैंने याद किया कि मैंने अपने पिता को क्या कहा था..!*
*मन में अपराधबोध जागा और मैंने बिना सहारे चलने की कोशिश की..!*
*लेकिन, तभी मेरा बेटा दौड़कर आया और बोला—*
*“पापा, दीवार पकड़ लीजिए… कहीं गिर न जाएँ..!”*

*उसके शब्द सुनते ही मेरी आँखें भर आईं..!*
*तभी मेरी पोती नन्हें कदमों से आई और मासूमियत से बोली— “दादा जी, दीवार क्यों पकड़ते हो…? मेरा कंधा पकड़ो न…”*

*मैं काँपते हाथ से उसका कंधा थाम लिया..!*
*वह मुझे धीरे-धीरे सोफे तक ले आई..!*
*उसकी मासूमियत ने मेरी आँखों से आँसू बहा दिए..!*

*फिर उसने अपनी कॉपी खोलकर दिखाई..*
*उसमें बनाई हुई तस्वीर—दीवार पर बने मेरे पिताजी के हाथों के निशान…!*
*नीचे लिखा था—*
*”अगर हर बच्चा अपने बड़ों का ऐसे सहारा बने तो कोई बूढ़ा अकेला नहीं, होगा..!”*

*मैं भीतर जाकर पिता जी की याद में रो पड़ा और मन ही मन उनसे माफी माँगी…!*

*समय किसी को बख्शता नहीं..! आज जो जवान हैं, कल वे भी उम्र के इस पड़ाव से गुजरेंगे..!*
*आओ, अपने बड़ों को सम्मान दें, उनकी तकलीफ़ समझें और अपने बच्चों को भी यह सीख दें कि—*
*बड़ों का सहारा बनना ही सबसे बड़ी नेकी है…!*

( संकलित )

—- राम कुमार दीक्षित, पत्रकार !

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