” साथी , साँझ लगी अब होने “

फैलाया  था   जिन्हें  गगन  में  ,

विस्तृत  वसुधा  के  कण् — कण्  में  ,

उन किरणों के अस्ताचल  पर पहुँच लगा है सूर्य संजोने

साथी  साँझ  लगी  अब  होने   !

 

खेल  रही  थी  धूलि  कणों  में

लोट– लिपट  गृह — तरु– चरणों  में

वह छाया देखो जाती है प्राची में अपने को खोने

साथी  , साँझ  लगी  अब  होने  !

 

मिट्टी  से  था  जिन्हें  बनाया

फूलों  से  था  जिन्हें  सजाया

खेल— घरौंदे छोड़ पथों पर चले गए हैं बच्चे सोने

साथी, साँझ  लगी  अब  होने  !

——  प्रसिद्ध कवि  हरिवंश राय बच्चन

( संकलित  )

 

——–  राम  कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  !

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