” प्रदीप ” ( कविता के कुछ अंश )

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है  ,

थककर बैठ गए क्या भाई, मंज़िल दूर नहीं  है  !

 

चिनगारी बन गई लहू  की

बूंद गिरी जो पग से,

चमक रहे, पीछे मुड़ देखो  ,

चरण– चिन्ह  जगमग– से  !

शुरु हुई आराध्य– भूमि  यह  ,

क्लांति  नहीं रे  राही  ,

और नहीं तो पाँव  लगे हैं,

क्यों  पड़ने  डगमग– से  ?

बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर  नहीं  है  ,

थककर  बैठ गए क्या भाई, मंज़िल  दूर  नहीं  है   !

( क्रमशः  )

——- प्रसिद्ध कवि    रामधारी सिंह दिनकर

( संकलित  )

 

——-  राम कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  !

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