अपरस रहत सनेहतगा तें , नाहीन मन अनुरागी !!
पुरइनि पात रहत जल– भीतर ता रस देह ना दाग़ी !
ज्यों जल मांह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी !!
प्रीति– नदी में पाँव न बोर्यो , दृष्टि न रूप परागी !
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी !!
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव जी , तुम्हीं सबसे अच्छे और भाग्यशाली हो जो समस्त प्रेम– सूत्रों से अनासक्त हो और किसी में तुम्हारा मन अनुरक्त नहीं है ! तात्पर्य यह है कि तुम अत्यंत अभागे हो जो प्रेम– रस को नहीं समझते ! तुम्हारी दशा तो उस कमल– पत्र की भाँति है जिसने जल के भीतर रहते हुए भी जल से अपने शरीर में दाग़ नहीं लगाया ! आशय यह है कि तुम रहते तो श्री कृष्ण के निकट हो, लेकिन उनके प्रेम से सदा अनासक्त रहे ! यही नहीं , जैसे जल में तेल की गगरी को डुबा दिया जाए तो उस पर जल की एक बूँद भी नहीं रुकती ! तुम प्रेम के संबंध में क्या जानो क्यों कि तुमने कभी न तो प्रेम की नदी में अपने पाँव को निमज्जित किया और न श्रीकृष्ण के सौंदर्य पराग में तुम्हारी दृष्टि ही अनुरक्त हुई ! सूरदास का कथन है कि गोपियाँ उद्धव जी से बताती हैं कि हम तो सबसे पगली और भोली– भाली अबलायें ही हैं जो गुड़ और चींटी की भाँति श्रीकृष्ण के रूप माधुर्य में चिपट गई हैं ! श्रीकृष्ण के प्रेम में हम गोपियाँ इतना खो गई हैं कि हमें अपना होश ही नहीं है !
——- राम कुमार दीक्षित , पत्रकार !