” प्रेम और भक्ति में क्या अन्तर है ? “

प्रेम और भक्ति पर्यायवाची शब्द हैं  ! दोनों की परिभाषा एक ही है  ! दोनों में समर्पण का भाव होता है  ! प्रेमी और भक्त दोनों ही तू ही तू के रूप में परमात्मा का स्मरण करते हुए परमात्मा में अपने ” मैं  ” को विसर्जित कर सदा  आनंद के सागर  में  डूबे रहते  हैं  !

प्रश्न यह उठता है कि हमारे अन्दर प्रेम कैसे जगे  ?   इसके लिए परमात्मा के समक्ष पूर्ण समर्पण करना ही श्रेष्ठ  होगा कि  हम जैसे भी हैं   , आपके ही हैं  !  आप  ही हमारे भीतर अपना प्रेम प्रकट करो  ! परमात्मा के गुणों का श्रवण, उनका निरंतर चिंतन और उनका निरंतर सुमिरन करते रहना है  ! बाकी तो परमात्मा स्वयं ही संभाल लेंगे  !

किसी ने एक बार प्रश्न किया था कि क्या नाम जपते रहने से  परमात्मा मिल जायेंगे  ?  इस पर एक संत ने उत्तर दिया था कि आप किसी के द्वार पर हर रोज खटखटाते रहोगे तो वह कभी तो द्वार खोलेगा ही  ! नाम जप भी परमात्मा का द्वार खटखटाने के समान है  ! वह कृपा करके अवश्य ही मिल जायेंगे !  उड़िया बाबा से किसी ने पूँछा कि हमें रुचि नहीं है तो भी वह क्या हमें मिलेगा  ?  बाबा ने कहा— सिर्फ पुकारो  , निरंतर पुकारो  ! धीरे — धीरे प्रेम होगा और वह अवश्य मिलेगा  !

राधा जी भगवान  श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम करती थी फिर भी उन्हें पूरा जीवन वियोग सहन करना पड़ा  ! सुख  वियोग तथा मिलन दोनों में है  ! वियोग और संयोग  दोनों  अत्यंत आवश्यक है  ! मीरा, कबीर, तुकाराम आदि सभी भक्तों के जीवन परमात्मा के वियोग में ही व्यतीत हुए हैं लेकिन उन्होंने इस दुख को दुख नहीं माना  ! वियोग में उनका जीवन और अधिक निखर गया  ! उनकी भक्ति में और अधिक दृढता आ  गई  !

हमारे अन्दर परमात्मा की प्यास पैदा हो जाए  और हम उसके वियोग में तड़पने  लगें तो कुछ बात बन सकती है  ! परमात्मा को भीगी पलकों से पुकारना और निरंतर  सुमिरन करना उसके द्वार की चाभी है  ! परमात्मा अपनी अहेतुकी कृपा से सबके हृदय में अपने प्रति ऐसी प्यास पैदा कर दें,  यही उनके  चरणों में प्रार्थना  है  !

 

——–  राम  कुमार  दीक्षित  ,   पत्रकार   !

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