सर्प क्यों इतने चकित हो
दंश का अभ्यस्त हूँ
पी रहा हूँ विष युगों से
सत्य हूँ आश्वस्त हूँ
ये मेरी माटी लिए है
गंध मेरे रक्त की
जो कहानी कह रही है
मौन की अभिव्यक्त की
मैं अभय लेकर चलूँगा
ना व्यथित ना त्रस्त हूँ
वक्ष पर हर वार से
अंकुर मेरे उगते रहे
और थे वे मृत्यु भय से
जो सदा झुकते रहे
भस्म की संतान हूँ मैं
मैं कभी ना ध्वस्त हूँ
है मेरा उद्गम कहाँ पर
और कहाँ गंतव्य है
दिख रहा है सत्य मुझको
रूप जिसका भव्य है
मैं स्वयं की खोज में
कितने युगों से व्यस्त हूँ
है मुझे संज्ञान इसका
बुलबुला हूँ सृष्टि में
एक लघु सी बूँद हूँ मैं
एक शाश्वत वृष्टि में
है नहीं सागर को पाना
मैं नदी सन्यस्त हूँ !
———– प्रसिद्ध कवि एवं लेखक प्रसून जोशी
( संकलित )
————- लक्ष्मीकांत तिवारी , संपादक, दैनिक ” युग वैभव ” हिन्दी समाचार पत्र , लखनऊ !