” कोई अन्दर खो गया है “

हृदय– नगरी में बड़ा शोर मचा है

शायद  !  कोई अन्दर खो गया है

 

कुछ झूमती हुई,    बदहवासियां

शोर मचाती चिल्लाती  खामोशियाँ

मन  के, नीले गगन  में उड़ती  रहीं

कुछ  जवान— चंचल   चिड़ियों की  तरह

 

मैंने  दिल  से  पूंछा, दिल  रो  पड़ा  है

शायद,  कोई  अन्दर   खो  गया   है

 

दुःखों  में  क्या  पत्थर  भी  रोते  हैं

अक्स  चूमते– धरा  भिगोते  हैं  कोई  ?

जब  सारा  जग  सोता  है  , हम  जागते  हैं

या  फिर  अपना बुत  खुदी तराशते  हैं

 

मेरे  हृदय  में  पूरा  संसार  बसा  है

और जिस्म  पत्थर  का  हो  गया  है

शायद  !  कोई  अन्दर  खो  गया  है   ! !

————  जगवीर सिंह  ” राकेश  ”

( संकलित  )

——— राम  कुमार  दीक्षित  ,  पत्रकार  !

 

 

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