महान संत श्री रामचंद्र डोंगरे जी महाराज के पास कुछ जिज्ञासु पहुंचे ! भक्त प्रवर श्री रामनिवास धन्धारिया ने उनसे प्रश्न किया , महाराज, कुछ भक्तजन अपना अंतिम समय तीर्थस्थलों में व्यतीत करने का संकल्प लेते हैं ! क्या तीर्थस्थल में मृत्यु होने से मुक्ति मिल जाती है ?
सन्त डोंगरे जी महाराज मुस्कराए तथा बोले , ” जिसका तन तीर्थ या मन्दिर में हो ” , लेकिन शरीर सदकर्म ना करता हो और मन ईश्वर के चरणों की जगह भौतिक वस्तुओं में पड़ा रहता हो एवं उसकी मृत्यु हो जाए तो उसका कल्याण कैसे हो सकता है ! यदि शरीर अस्पताल में हो और मन में ईश्वर का स्मरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो स्वाभाविक रूप से वह भगवान् के धाम का अधिकारी हो जाता है !
सन्त श्री डोंगरे जी ने अपनी बात और स्पष्ट करते हुए कहा, गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी पवित्र जीवन जीने वाला व्यक्ति भगवान् की कृपा का अधिकारी होता है जबकि सन्यासी का वेश धारण करने के बावजूद, जो व्यक्ति मोह— ममता और राग– द्वेष में फंसा रहता है , वह तीन काल में भी परमात्मा की कृपा दृष्टि प्राप्त नहीं कर सकता !
इस प्रसंग से सीख यही मिलती है कि सारा खेल मन का है ! संतों के यह भी वचन हैं कि ” मन ना रंगायो , रंगायो जोगी कपड़ा … ” परिवार की सारी जिम्मेदारियां निभाते हुए यदि मन परमात्मा के सुमिरन में लगा रहे तो यह परमात्मा की बहुत बड़ी साधना है गृहस्थ के लिए ! परमात्मा का स्मरण यदि सारे कार्य करते हुए होता रहे तो परमात्मा अपनी कृपा अवश्य ही करते हैं ! साथ में सादा जीवन, उच्च विचार और परोपकार जीवन के सूत्र भी होने चाहिए तभी जीवन में आपको अलौकिक शान्ति एवं आनंद का अनुभव होगा !
———– राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे !