” बच्चन की ” मधुशाला ” के कुछ अंश “

मदिरालय   जाने  को  घर  से  ,

चलता है पीने  वाला  ,

‘ किस  पथ से  जाऊँ  ? असमंजस

में  है वह भोलाभाला  ,

अलग अलग पथ बतलाते सब  ,

पर मैं यह  बतलाता  हूँ —

‘ राह पकड़ तू एक चला चल,

पा  जायेगा  मधुशाला   !!

 

बनी रहें अँगूर लताएँ  जिनसे मिलती है हाला,

बनी रहे वह मिट्टी जिससे बनता है मधु का प्याला,

बनी रहे वह मदिर पिपासां, तृप्त न जो होना जाने  ,

बने रहें ये पीने वाले बनी रहे यह मधुशाला  !

 

मेरी हाला में सबने पाई, अपनी–अपनी  हाला

मेरे प्याले में सबने पाया अपना–अपना  प्याला  ,

मेरे साक़ी में सबने  अपना प्यारा साकी देखा,

जिसकी जैसी रुचि थी, उसने वैसी देखी मधुशाला!

 

बड़े– बड़े  नाज़ों से  मैंने पाली है साक़ीबाला,

कलित कल्पना का ही  इसने सदा उठाया है प्याला,

मान–दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,

विश्व, तुम्हारे हाथों  में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला  !!

———- हरिवंशराय ” बच्चन  ”

( संकलित  )

राम कुमार दीक्षित,  पत्रकार   !