” उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे “

कहाँ   तक  ये  मन  को  अंधेरे  छलेंगे,

उदासी  भरे  दिन  कभी  तो  ढलेंगे   !

कभी  सुख,  कभी  दुःख,  यही ज़िंदगी  है  ,

ये  पतझड़  का मौसम  घड़ी  दो  घड़ी  है  !

नये  फूल  कल  फिर  डगर  में  खिलेंगे  ,

उदासी  भरे  दिन  कभी  तो  ढलेंगे   !

भले  तेज़  कितना, हवा  का  हो  झोंका  ,

मगर  अपने  मन  में  तू  रख  ये  भरोसा  !

जो  बिछड़े  सफर  में  तुझे  फिर  मिलेंगे  ,

उदासी  भरे  दिन  कभी  तो  ढलेंगे    !

कहे  कोई  कुछ  भी,  मगर  सच  यही  है   ,

लहर  प्यार  की  जो  कहीं  उठ  रही  है,

उसे  एक  दिन  तो  किनारे  मिलेंगे   ,

उदासी  भरे  दिन  कभी  तो  ढलेंगे   !

रहो  दूर   तुम भी, रहें दूर   हम  भी

न है तुममें चाहत  , तो बेफिक्र मैं भी

ये उगते हुए दिन भी, यूँ हीं  ढलेंगे   ,

कहाँ तक ये मन को अंधेरे  छलेंगे  !

उदासी भरे दिन , कभी तो ढलेंगे   !

 

———- राम कुमार दीक्षित, पत्रकार, पुणे  !